उत्तराखंड में 16 संस्कारों में मांगल गीतों की अनोखी परंपरा रही है। शुभ कार्यों में मांगल गीत गाये जाते थे। जन्म से लेकर विवाह तक इन मांगल गीतों में देवताओं का स्तुति की जाती है। उत्तराखंड के गढ़वाली, कुमाउँनी, जौनसारी और भोटिया जनजाति में मांगल गाने की प्रक्रिया है।पहले जन्म, मुंडन सहित सभी संस्कारों में मांगल गाने की परम्परा रहती थी लेकिन पलायन और पाश्चात्य संस्कृति के चलते मांगल गीतों की ये अनोखी परम्परा खत्म होती चली गई। अब पर्वतीय इलाकों में केवल कहीं कही ही शादी समारोह में मांगल गीतों को गाया जाता है।

वैसे तो समूचे उत्तराखंड में मांगल गीतों की गाया जाता है। लोकगायिका डा माधुरी बडथ्वाल कहती है मांगल गीत मंगलेरियां गाती है लेकिन पहाडों में हर गांव के औजी यानी ढोल वादक भी शुभ कार्यों के समय मांगल गीतों को गाते रहे। गढ़वाल के रुद्रप्रयाग और चमोली को मल्या मुलक यानी अपर गढ़वाल कहा जाता है। बद्री केदार की भूमि में भगवान शिव पार्वती को आधार मानकर मांगल गीतों का गायन किया गया।लोक गीतों की जानकर डॉ माधुरी बड़थ्वाल कहती है कि मांगल गीतों में देववाणी है। हमारे पूर्वजों ने इन गीतों को संस्कृति और पुराणों से लिया है और रुद्रप्रयाग और चमोली गढवाल में यह अपने मूल स्वरुप में आज भी विद्यमान है।
मांगल और खुदेड गीत अभी भी केदारघाटी में जीवित है। यहाँ अभी भी मांगल उसी स्वरूप में गाये जाते है। सारी गाँव की मांगल गायिका रामेश्वरी भट्ट कहती है कि केदारघाटी में शिव और पार्वती को वर वधू के रूप में मांगल गीतों की रचना की गई है जबकि पौड़ी गढ़वाल में लक्ष्मी नारायण को आधार मानकर मांगल गीतों की रचना की गई है। मांगल गायिका रेखा धस्माना कहती है कि मांगल गीतों में देवताओं, ईष्टदेव, पित्रो की स्तुति की जाती है लेकिन पौड़ी गढवाल में मांगल गीतों में हंसी ठिठोली भी आती है।

मांगल गीतों को संरक्षित और ग्रामीण स्तर पर पुनर्जीवित करने की दिशा में बहुत कम सार्थक प्रयास हुए। राज्य गठन के बाद मांगल और लोक गीतों में और भी कमी आई। राज्य सरकार के संस्कृति विभाग ने इसके प्रचार-प्रसार पर कोई खास प्रयास नही किया जिससे आने वाली पीढियां भी मांगल गीतों को सीख सके। लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी, लोक गायिका रेखा धस्माना उनियाल और डा माधुरी बडथ्वाल जैसे लोक कलाकारों ने मांगल की जीवित रखने के साथ ही अलगी पीढी को सिखाने की दिशा में कार्य कर रहे है। रेखा धस्माना उनियाल तो शिक्षा विभाग के संगीत शिक्षकों को इसका प्रशिक्षण दे रही है साथ ही शादी विवाह समारोह में हल्दी हाथ के समय वो गाने भी जाती है। केदारनाथ विधायक मनोज रावत ने मांगल गीतों को संरक्षित करने और नई पीढी को मांगल सिखाने का अभिवन प्रयास किया। उन्होने अपनी विधानसभा में ही करीब 160 गांवों में 18 स्थानों पर इसका ग्रामीण स्तर पर आयोजन किया। मनोज रावत ने कहा कि हमारी कोशिश है कि मांगल को फिर से लोकप्रिय बनाया जाए। उन्होने कहा कि मांगल और खुदेड गीत पहाड की लोकसंस्कृति का अभिन्न अंग रहे है और महिलाएं इसकी संवाहक रहती है।इसलिए इस अनमोल लोकसंस्कृतिक को हमेशा जीवित करने के लगातार प्रयास किया जाता रहना चाहिए।

हिन्दू रीति रिवाजों में केवल उत्तराखंड में ही नही बल्कि उत्तर प्रदेश, हिमांचल, राजस्थान, मध्य प्रदेश और अन्य कई राज्यों में भी संस्कार गीत गाये जाए है। डॉ माधुरी बड़थ्वाल कहती है कि मांगल का जन्म उत्तराखंड में ही हुआ जो पूरे भारत में बढ़ता गया। केदारघाटी में मांगल अभी भी पुराने स्वरूप में मौजूद है। यहाँ पर भगवान शिव और पार्वती को आधार मानकर मांगल गीतों की रचना की गई। ग्राम स्तर पर आयोजित इन प्रतियोगिताओं से यह कई महिलाओं की प्रतिभाएं पता चली। रारी गांव की गुड्डी देवी, तालतोली गांव की रुक्मडी देवी, कालीमठ गांव की विनिता मर्छवाण और सारी गांव की रामेश्वरी भटट् प्रमुख है। केदारघाटी, कालीमठ घाटी, मदमहेश्वर घाटी सहित कई अन्य घाटियों में मांगल गायन शादियों में होता रहा है।

लोक साहित्यकार डा नंद किशोर हटवाल कहते है कि मांगल गीतों को संस्कार गीत भी कहा जाता है। संस्कार गीत हिन्दू धर्म में सभी राज्यों में प्रचलित है। राजस्थान में मांगल गीतों की तर्ज पर संस्कार गीत काफी प्रचलित है। डॉ हटवाल कहते है कि शादी विवाह को छोड़कर अन्य संस्कारों में गाये जाने वाले मांगल अब समाप्त हो चुके है क्योंकि अन्य ये गीत नई पीढी को नही सौपा जा सके। उन्होंने कहा कि अगर शादी विवाह में बचे मांगल गीतों को हम नई पीढ़ी को नही सिखा पाए तो ये भी लुप्त हो जाएंगे।
बहुत सुंदर🙏🙏🙏
धन्यवाद !
बहुत सुंदर🙏🙏🙏
धन्यवाद रावत जी
जी कई लोगो को तो उत्तराखंड के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है ।पर आपके विडीओ और लेख के माध्यम बसे काफी जानकारी होती है।आप इसी तरह उत्तराखंड में आने वाले लोगोंऔर उत्तराखंड में रहने वाले लोगों का मनोबल ओर ज्ञान बढ़ाते रहे।
धन्यवाद।
धन्यवाद Babita ji
संदीप जी जिस प्रकार आप उत्तराखंड के सांस्कृतिक तत्व कला त्योहार पर्व उत्सव वहां के गांव की जीवन शैली संगीत कला में नृत्य गीत मंगल या संस्कार गीत धार्मिक गीत कृष्ण और पांडव संबंधी पौराणिक लोक कथाएं अनछुए अनदेखे गांव की कहानियों को जिस ढंग से दर्शकों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं वह बहुत ही सराहनीय ज्ञानवर्धक और बुग्याल का विस्तार पूर्वक वर्णन पारिस्थितिकी तंत्र पर हिमालय क्षेत्र में क्या-क्या चुनौतियां खड़ी हैं उनके बारे में जानकारी देने के लिए धन्यवाद
धन्यवाद हीरा सिंह जी !