देहरादून की सरजमीं पर एक ऐसा युद्व लडा गया जो अपने युद्व कौशल के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्व हो गया। 1814 में अंग्रेजों और गोरखाओं के बीच हुए इस ऐतिहासिक युद्व का प्रतीक है खलंगा स्मारक जहां पर हर साल मेला सजता है। 500 गोरखा सैनिकों ने आखिर कैसे 3000 अंग्रेजी फौज को नाको चने चबवा दिए ? देखिये ये पूरी रिपोट
25 अक्टूबर 1814 को हुआ था खलंगा दुर्ग पर पहला आक्रमण

गढ़वाल और कुमाँऊ पर विजय प्राप्त करने के बाद गोरखाओं के शासन को गोरख्याणी कहा जाता है। इस समय गोरखाओं ने गढ़वाल की जनता पर कई अत्याचार किये लेकिन जब अंग्रेजो ने गोरखाओं की हुकूमत को हटाने के लिए चढ़ाई की तो गोरखा सेना ने खलंगा दुर्ग में अद्धितीय साहस का परिचय दिया था।
सन 1814 का दौर…..अंग्रेजी हुकूमत चारों ओर अपना विस्तार करने में जुटी थी और वीर सेनापति बलभद्र थापा ने अंग्रेजों की गुलामी ने इंकार कर दिया तो 25 अक्टूबर 1814 को मेजर जनरल जिलेस्पी के नेतृत्व में कर्नल मावी खलंगा किले में धावा बोल दिया। कर्नल मावी अपने साथ एक रेजीमेंट टुकड़ी लेकर सहारनपुर से मोहन्ड घाटी होते हुए देहरादून पहुचे। उसके सहयोग के लिए कर्नल कारपेन्टर के नेतृत्व में दूसरी टुकड़ी ने भी खलंगा दुर्ग पर हमला कर दिया। अंग्रेजी सेना ने गोरखा फौज को हल्के में लिया और पहले आक्रमण में गोरखा सैनिकों ने अंग्रेजों बुरी तरह पराजित कर दिया।
31 अक्टूबर को मेजर जनरल गिलेस्पी ने दूसरे आक्रमण की बागडोर थामी

पहले आक्रमण में अंग्रेजी सेना के कई अधिकारी और सैनिक हताहत हो चुके थे लिहाजा दूसरे आक्रमण में अंग्रेजी फौज का नेतृत्व करने के लिए खुद मेजर जनरल जिलेस्पी मोर्चा संभाल लिया। दूसरे आक्रमण में गोरखा सेनापति बलभद्र थापा को घेरने के लिए पांच भागों से दुर्ग पर चढाई शुरु की गई। 31 अक्टूबर को 6 बजे सुबह पांच स्थानों से हमला बोल दिया। इससे पहले अंग्रेजों ने सेनापति बलभद्र थापा को दूत भेज आत्मसमर्पन करने को कहा लेकिन बलभद्र थापा ने दूत के पत्र को बिना पढ़े फाड दिया और कहा कि युद्वभूमि में मुलाकात होगी। जैसे ही अंग्रेजों ने खलंगा दुर्ग पर धावा बोला गोरखा सैनिकों ने बन्दूक, तीर पत्थर, और घुयत्रो से जबरदस्त प्रहार किया। गोरखा सैनिकों की अद्वितीय युद्व कौशल के सामने अंग्रेजी फौज टिक ना सकी और युद्व स्थल से भाग खडी हुई। यह देख मेजर जनरल गिलेस्पी ने खुद मोर्चा संभाला और खलंगा दुर्ग के काफी करीब पहुच गये लेकिन इसी बीच एक गोली उनके सीने में जा लगी और वे वही धराशाही हो गये। बलभद्र थापा ने सम्मानपूर्वक जनरल गिलेस्पी का शव अंग्रेजों को सौंप दिया।इसके बाद अंग्रेजी फौज में हडकंप मज गया।
25 नवम्बर को खलंगा किले पर तीसरा और निर्याणक आक्रमण

पहले के दो आक्रमणों में अंग्रेजी फौज को गोरखा सैनिकों की वीरता और युद्व कौशल का आभास हो गया था। इसलिए उन्होने दिल्ली से और सेना मंगवाई। आक्रमण को धार देने के लिए भारी मार करने वाली 18 पाउण्डर तोपें भी मंगवाई गयी। दिल्ली से फौजी सहायता मिलने के बाद 25 नवम्बर को कर्नल मावी के नेतृत्व में फिर धावा बोल दिया। एक महीने से अधिक समय तक गोरखा सैनिकों के किले में युद्व साम्रगी, खाने पीने के राशन की कमी होने लगी। किले के अन्दर चोरों ओर से घिरी गोरखा सेना पर अंग्रेजो ने पूरी ताकत से हमला बोल दिया। 1 महीने तक हुए इस युद्व में अंग्रेजों ने तीन बार खलंगा दुर्ग पर आक्रमण किया। अंत में जब अंग्रेजों को लगा कि गोरखा सैनिकों को परास्त करना मुश्किल है तो उन्होने किले में पानी और खाद्यान्न के सभी रास्ते बंद कर दिये तो अंत में वीर सेनापति बलभद्र थापा ने खुद ही खलंगा दुर्ग को छोड दिया।
अपनी वीरता और रणकौशल से अंग्रेजों को भी सेनापति बलभद्र थापा ने बनाया कायल

तीसरी बार जब अंग्रेजों ने आक्रमण किया तो किले में मौजूद गोरखा सैनिक, महिलाएं और बच्चे भूख प्यास से मरने लगे। इस भयावद दृश्य को देख सेनापति बलभद्र थापा खुद चिल्लाते हुए किले से बाहर आ गये कि खलंगा को कोई जीत नही सकता …. मै खुद इसे छोड़ रहा हूं ………यह कहते हुए वे जोनागढ़ की ओर निकल गये। युद्व समाप्त होने के बाद अंग्रेजों ने सहस्रधारा रोड पर मेजर जनरल गिलेस्पी के सम्मान में स्मारक बनाया । अंग्रेज बलभद्र थापा और गोरखा रणबांकुरों के युद्व कौशल के कितने कायल थे ये तब पता चला जब उनके सम्मान में दूसरा स्मारक बनाया गया। बलभद्र खलंगा विकास समिति के अध्यक्ष कहते है प्रति वर्ष होने वाला मेला गोरखा सैनिकों की अदम्य साहस, वीरता और बलिदान का कहानी कहता है। राम सिंह थापा कहते है कि गोरखा समुदाय को अपने गौरवशाली इतिहास से रुबरु कराने के लिए खलंगा मेले का आयोजन किया जाता है।
26.27 नवम्बर को खलंगा स्मारक में आयोजित हुआ मेला
1814 में अंग्रेजों और गोरखाओं के बीच हुआ युद्व पूरी दुनिया में प्रसिद्व हुआ। विश्व में शायद ही कोई जगह ऐसी हो जहां पर शत्रु के सम्मान में स्मारक बनाया गया हो। खलंगा युद्व का स्मारक गोरखा सैनिकों के अदस्य साहस और युद्व कौशल की गवाही आज भी दे रहा है। इस युद्ध के बाद अंग्रेजो ने कुमाँऊ से भी गोरखा सेनाओं को परास्त कर दिया है पूरे उत्तराखंड से गोरखा शासन खत्म कर दिया।

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