ग्रामीणों ने मेहनत कर पेश की जल संरक्षण की अनोखी मिशाल किफायती दर पर तैयार किए सैकड़ो वाटर टैंक से बचाया 65 लाख लीटर से ज्यादा पानी

धरती गर्म हो रही है,बून्द बूंद पानी के लिए हाहाकार मचा है। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे है। पहाड़ में कृषि और बागवानी के लिए पेयजल संकट गहराता जा रहा है। संकट की इस घड़ी में ऐसे भी गाँव है जिन्होंने माइक्रो लेवल पर इसका समाधान निकाल लिया जिसके बाद ना सिर्फ उनकी सिंचाई जरूरत पूरी हुई बल्कि अन्य ग्रामीण भी इसका अनुसरण कर रहे है। नैनीताल जिले में ग्रामीणों के समूह जनमैत्री संगठन से जल संरक्षण का अनोखा तरीका निकाला।पीएम मोदी की पर ड्राप पर क्रॉप की मुहिम को जनमैत्री संघठन आगे बढ़ा रहा है।
जल संकट से जूझ रहा था पूरा इलाका,अब काशकारों के चेहरे पर खिली मुस्कान

आपने अक्सर देखा और सुना होगा कि जलवायु परिवर्तन के खतरनाक परिणाम सामने आ रहे है। सूखा, अतिवृष्टि, जल संकट, फारेस्ट फायर जैसी समस्याएं सामने खड़ी है। लोग सरकारों की तरफ टकटकी लगाए रहते है कि सरकार कुछ करेगी लेकिन इस गंभीर संकट से लड़ने के लिए रामगढ़ ब्लॉक के ग्रामीणों ने अनोखा तरीका निकाला। जिले के रामगढ़ ब्लॉक में पिछले कई वर्षों से स्थानीय लोगों की जनमैत्री संघठन ने वाटर टैंक बनाये। रामगढ़ और धारी ब्लॉक सेब, आड़ू, पूलम, खुमानी और सब्जियों में मटर आलू के लिए प्रसिद्ध है। तल्ला रामगढ़ के आडू की तो दिल्ली और मुम्बई में काफी डिमांड है।लेकिन 2005 के बाद मौसम चक्र में बदलाव के बाद फसल चक्र भी बदलने लगा। कभी सूखा तो कभी अतिवृष्टि तो सर्दियों में बर्फ़बारी के लिए लोग तरसते रहे। इसका असर काश्तकारों की सब्जियों और फलों के बगीचों पर पड़ना शुरू हो गया। जब पेयजल संकट गहराया तो खेती और बागवानी के लिए मुश्किल खड़ी हो गई। जनमैत्री संघठन के संयोजक बच्ची सिंह बिष्ट ने बताया कि केंद्र सरकार ने उन्हें मदद की और ग्रामीणों ने खुद ही फावड़ा उठाकर वर्षा जल को संग्रह करने का बीड़ा उठा दिया।
किफायती दर पर गांवों में तैयार हो रहे है प्लास्टिक के टैंक

रामगढ़ ब्लॉक के दर्जनों गांव में यही समस्या थी तो इससे समाधान के लिए भी ग्रामीण खुद आगे आये।ग्रामीणों ने जनमैत्री संघठन बनाया। पर्यावरण और जल संरक्षण के लिए वृक्षारोपण, जंगलों की रक्षा, चाल खाल की मुहिम शुरू हो गई। 2017 में ICSR ने इस इलाके के सतबुंगा, लोद, सूफी,पाटा गांवों में शोध कार्य कर ग्रामीणों को प्लास्टिक टैंक बनाने का सुझाव दिया। ग्रामीणों को इसकी तकनीक दी गई। एक टैंक को बनाने के लिए ग्रामीणों ने अपने घर, बगीचों के आस पास 5 फ़ीट का गहरा,10 फ़ीट लंबा और 10 फ़ीट चौड़ा गड्डा खोदा। उसके बाद उसे स्थानीय मिट्टी से लिपाई कर दी और उच्च कोटि के प्लास्टिक ढककर उसमे पानी भर दिया। पूरे इलाके में करीब 350 से ज्यादा ये वॉटर टैंक बनाये गए है। एक गड्ढे में करीब 10 हजार लीटर पानी आता है अब तक ग्रामीणों ने 65 लाख लीटर से ज्यादा पानी का संरक्षण कर लिया है। एक वाटर टैंक को बनाने में 4 हजार की धनराशि खर्च होती है जबकि राज्य सरकार सीमेंट के टैंक बनाने में 25 हजार से ज्यादा खर्च होता है।
फलपट्टी को जल संरक्षण से मिल रहा है जीवनदान

इस इलाके को प्रदेश की फल पट्टी भी कहते है। रामगढ़ और मुक्तेश्वर में जब पेयजल संकट गहराया तो प्लास्टिक टैंक काफी किफायती नजर आए। इन टैंकों को लोगों ने खुद खोदा। जब भी कोई गड्डा खोदा जाता है तो ग्रामीण खुद ही श्रमदान करते है। इस मुहिम से शुरुआत से जुड़े काश्तकार महेश नयाल ने बताया कि 2005 से पहले स्थिति बेहतर थी लेकिन उसके बाद जलवायु में लगातार परिवर्तन आ गया। अत्यधिक वर्षा, सूखा और सर्दियों में कम बर्फ़बारी से हालात और भी खराब होते चले गए। पिछले 3 सालों से हर गांवों में इन टैंकों का निर्माण किया जा रहा है। अब खेतों में सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी है और इससे उनकी आमदनी में भी इजाफा हो रहा है। पर्यावरण जानकर की माने तो पूरे प्रदेश में 10 हजार से अधिक स्प्रिंग और नाले सुख चुके है और बाकी तेजी से सूखने की कगार पर है।
पहाड़ो में जनमैत्री का मॉडल बन सकता है मील का पत्थर

पहाड़ के ग्रामीण इलाकों के पेयजल श्रोत या तो सूख गए थे या फिर बड़े बिल्डरों और रिजॉर्ट मालिको ने उसपर कब्जा करना शुरू कर दिया। नैनिताल जिले में हर जगह इसकी बानगी दिखाई देती है। 2017 में भयंकर गर्मी पड़ी तो फिर स्थानीय लोगो ने अपने पेयजल श्रोत के लिए आंदोलन खड़ा कर दिया। कृषि और बागवानी से जानकर रतन सिंह असवाल बताते है कि पहाड़ो में सिंचाई भगवान भरोसे है। उत्तराखंड में कुल 12 % भूमि कृषि योग्य है। इस 12 प्रतिशत भूमि में 80 % मैदानी और 20 % पर्वतीय इलाकों में है। पर्वतीय इलाकों में 20% कृषि भूमि में से केवल 6% भूमि पर ही खेती हो रही है और बाकी बंजर हो चुकी है। आकड़ो की माने तो 1 % से भी कम भूमि सिंचित है बाकी इंद्र देव पर निर्भर है। चकबंदी ना होने,जंगली जानवरों का खतरा अलग काश्तकारों का को परेशान करता है और थोड़ा बहुत खेतो से हो भी गया तो मार्केंटिंग ना होने से स्थिति और बिगड़ जाती है। जनमैत्री की मुहिम अन्य जिलों में भी शुरू हुई तो पहाड़ की तस्वीर बदल सकती है।
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