
पद्मश्री और मैती आंदोलन के जनक कल्याण सिंह रावत ने 16 अगस्त यानी भादो की संक्रांति को बुग्याल संरक्षण दिवस मनाने की अपील की है। उत्तराखंड में 100 से भी ज्यादा बुग्याल है जिन्हें संरक्षण की जरूरत है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में जहाँ ट्री लाइन खत्म हो जाती है और घास, जड़ी बूटियों के बड़े बड़े मैदान होते है उन्हें ही स्थानीय भाषा में बुग्याल कहा जाता है।

2018 में नैनीताल हाई कोर्ट ने बुग्यालों में रात्रि विश्राम को प्रतिबंधित कर दिया था। सभी बुग्यालों की मैपिंग और फूलों की डिटेल स्टडी का आदेश दिया था। लेकिन राज्य सरकार ने इस दिशा में कोई भी कार्य नही किया। उत्तराखंड में कई बुग्याल है जिनमे हरकीदून, पंवाली कांठा, कुश कल्याण, तुंगनाथ, मदमहेश्वर, मनपाई, पनार, सात ताल, बेदनी, आली, बगजी और ना जाने कितने बेशकीमती जड़ी बूटियों का खजाना और जल संरक्षण इन बुग्यालों में होता है। इसके अलावा राज्य के 11 हजार फुट से अधिक ऊंचाई पर जो भी घास के मैदान है। उन्हें बुग्याल ही कहा जाता है और इनकी गिनती अनगिनत है।

स्थानीय लोग भी अपने बुग्यालों की पूजा अर्चना करते है। उत्तरकाशी जिले की गंगोत्री घाटी में हर साल बटर फेस्टिवल जिसे अंदुड़ी पर्व भी कहा जाता है। ये पर्व भी बुग्यालों की पूजा का दिन होता है क्योंकि यहीं से उन्हें जल, घास मिलता है जिससे उनके पशु स्वस्थ रहते है और दूध दही का भंडार स्थानीय लोगों को मिलता है। इसलिए इस दिन लोग यहाँ मक्खन की होली खेलते है। ऐसी तरह चमोली की घाट,देवाल, जोशीमठ और कई अन्य घाटियों, बागेश्वर के कपकोट और पिथौरागढ़ के मुनस्यारी क्षेत्र में नंदा देवी को बुग्यालों में जाकर पूजा अर्चना भी बुग्यालों का संरक्षण का संदेश देता है।

उत्तराखंड में हर साल आ रहे लाखों सैलानियों को इस कार्य के लिए प्रेरित किया जा सकता है। वन विभाग स्वयं सेवी संस्थाएं और सभी मिलकर अपने बुग्यालों को बचाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठा सकते है। पद्मश्री कल्याण सिंह रावत का यह सुझाव पर ना सिर्फ कार्य करने की जरूरत है बल्कि हर साल इस नये संकल्प को मनाने की भी जरूरत है। तभी बुग्यालों का संरक्षण किया जा सकता है।

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